अतुल कांत खरे
बिलासपुर (Fourthline) । अब स्वेटर बुनते हाथ नजर नहीं आते । रेडीमेड और फैशन एक ऐसी आत्मीयता को निगल गए जो रिश्तो को करीब लाती थीं। बिलासपुर में कभी वह दिन भी थे जब घर के बाहर चौबारे पर भाभी, आंटी, बुआ, मौसी और दीदी हाथ में सलाइयां लिए स्वेटर बुनते्ती रहती थीं। कोई मफलर तो कोई टोपी यहां तक की छोटे-छोटे टेबल क्लॉथ और टेबल मेट भी हाथ से बुनकर बनाती थीं । गली-गली में ऊन वाले बेचने निकलते थे। अब फैशन और जीवन की आपाधापी ने नई पीढ़ी को ऐसे जकड़ लिया है कि रेडीमेड वैरायटी के चक्कर में बने बनाए जैकेट और स्वेटर लेना शुरू हो गया है।

यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है अब तो इक्का-दुक्का ही हाथ का बना स्वेटर पहनते हैं, जिनके घरों में है बस भूली बिसरी यादों की तरह है। अब नकली ऊन कैशमिलान के बने स्वेटर और जैकेटों में गर्माहट तो है पर वह आत्मीयता नहीं और वह प्यार नहीं जो दीदी भाभी बुआ मौसी और मां के हाथों से बनी हुई स्वेटरो में होता था।
बाजार से तो कोई भी खरीद सकता है, पर उन स्वेटरों का आनंद दोगुना था जो रात-रात भर जाग कर बनते थे। दस्ताने , मफलर आने वाले बाबा या बेबी के लिए पहले से स्वेटर बुने जाते थे और हाथ के बुने हुए स्वेटर नवजातों को पहनाए जाते थे।

बहुत सी महिलाओं के लिए यह घरेलू रोजगार था। लोग ऊन लाकर देते थे और अपनी मनपसंद का स्वेटर बनवाते थे । यहां तक कि कार्डिगन शॉल, पोंचो और गोल टोपियां सब घरों में ऑर्डर देकर बनवाते थे । बहुत-सी महिलाओं को आमदनी भी हो जाती थी। बिलासपुर में तो बहुत से बुनाई प्रशिक्षण केंद्र भी चला करते थे। 80 के दशक की बुनाई प्रशिक्षक शोभा श्रीवास्तव बताती हैं कि वह एक अद्भुत दौर था। स्कूल और कॉलेजों में महिला प्रोफेसर खाली समय में स्वेटर बुनते नजर आती थी। घरों की तो बात कुछ और थी। लगभग हर घर में कुछ ना कुछ बुना जाता था लेकिन अब वह दौर खत्म हो गया । श्रीमती श्रीवास्तव ने बताया कि उन्होंने हर तरह के स्वेटर बनाए, छोटे बड़े कार्डिगन बनाए और लच्छे वाले मफलर , मंकी कैप भी हाथ से बुनकर बनाये। मंजू कश्यप बताती हैं की सिर्फ सलाई ही नहीं यू पिन, क्रोशिया , मेटी सभी तरह के उपकरण से स्वेटर की बुनाई को । एक अलग ही लुक प्रदान करते थे। टेबल पर रखने वाले छोटे मेट भी बचे हुए ऊन से बना लिया करते थे। महिलाएं बहुत सी बनाकर बाजार में बेचती भी थीं।

प्रोफेसर प्रभा ब्यौहार बताती हैं कि हम कॉलेज में खाली पीरियड में स्वेटर बुन लेते थे। एक बहुत अच्छा माहौल बनता था । धूप में कुर्सियां निकाल कर बैठते थे और सभी विभागों की प्राध्यापक एक साथ बैठकर स्वेटर बनाया करते थे। श्रीमती कादंबरी ने बताया कि सलाई के साथ चूड़ियां खनकती थी , किसी के कंगन बजते थे और उंगलियां कलाइयों पर थिरकते हुए ऐसी डिजाइन बनाती थीं जो अब रेडीमेड में कभी नजर नहीं आती ।बहुत खूबसूरत नजरा हुआ करता था। थैलियों में, पर्स में और ऊन सलाइया हमेशा पड़े रहते थे, जब जहां मौका मिला बुनाई कर ली।

अब लच्छे में आता है ऊन

बिलासपुर में वर्धमान ऊन। के सप्लायर शंकर बिहानी बताते हैं कि अब ऊन गोलो में कम आता है लच्छे में ज्यादा रहता है हर प्रकार के लच्छे आते हैं और यह बिलासपुर में अब 100 रुपए में 120 ग्राम है। पहले की तरह गोले के डब्बे नहीं होते जो 1 रंग के खरीदना चाहते हैं उन्हें 1 रंग के लच्छे मिल जाते हैं । हालांकि इसकी ग्राहकी अब बहुत सीमित रह गई है। बहुत ही कम लोग हैं जो स्वेटर बुनने के लिए ऊन ले जाते हैं। वर्तमान में खिलौने बनाने के लिए या स्कूल में कंपटीशन वगैरह में उनकी डिमांड होती है । कुछ लोग खराब हो चुके स्वेटरों की मरम्मत के लिए ऊन ले जाते हैं । अब इसका पहले जैसा दौर नहीं रहा । घरेलू डिमांड तो बिल्कुल खत्म हो चुकी है।

मशीन से बुनते हैं -चांनु


बिलासपुर में मिशन अस्पताल रोड पर तिब्बती वूलन मार्केट लगा हुआ है । तिब्बत से आई की चानू देवी बताती हैं कि अब मशीनों से स्वेटर की बुनाई होती है। यहां बाजार में आए हुए स्वेटर सब मशीनों से बुने हुए होते हैं। उन्होंने fourthline को बताया कि स्वेटर के सामने और पीछे का हिस्सा पहले बना लिया जाता है। बाहें अलग बनती हैं फिर एक साथ सब की सिलाई होती है। ऊन सिलने के लिए अलग मशीनें आ गई हैं। तिब्बत में यह घरेलू रोजगार हैं। बहुत सी महिलाएं घर में मशीन से बनाती है । छोटी मशीन से और बाकी बड़ी मशीनों के प्लांट लगे हुए हैं, जहां प्रतिदिन 500 से 1000 स्वेटर तैयार होते हैं। स्वेटर के अलावा शाल कोट मफलर जैकेट और उनके लंबे लंबे कुर्ते भी बनाए जाते हैं , जो यहां बाजार में बिक्री के लिए आते हैं।

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