■ लव कुशवाहा
भाजपा के कद्दावर नेता रहे नंदकुमार साय ने पार्टी को अलविदा कह कांग्रेस का दामन थाम लिया। यह पूरी घटना अप्रत्याशित रही, जिससे प्रदेश का प्रत्येक भाजपा कार्यकर्ता हतप्रभ है मगर नंदकुमार साय को नजदीक से जानने वाले बताते हैं कि साय को पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश में काबिज पार्टी के मठाधीश नीचा दिखाने पर आमादा थे । यही कारण है कि रमन राज में उन्हें पद से हटते ही बंगला खाली करने का नोटिस मिल गया था, जिससे उस समय नंदकुमार साय काफी नाराज भी हुये थे। अजीत जोगी सरकार के समय एक प्रदर्शन के दौरान नेता प्रतिपक्ष रहते हुये पुलिस ने इन पर बर्बरतापूर्वक लाठी चार्ज किया था, जिससे इनका पैर टूट गया था। उस समय रायपुर के एसपी वही मुकेश गुप्ता थे। वह रमन राज में रमन सिंह का चहेता अफ्सर बन गए थे। जोगी सरकार जाने के बाद जब रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तब नंदकुमार साय के साथ यहां भी छल हुआ था । पार्टी नेतृत्व ने उस समय इन्हें अजीत जोगी के निर्वाचन क्षेत्र मरवाही के साथ तपकरा से भी चुनाव लड़ने को कहा था । नंदकुमार साय ने शक्ति प्रदर्शन करते हुये अजीत जोगी के खिलाफ नामांकन भरा तथा तूफानी चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया । तीन चार दिन बाद जब वे तपकरा नामांकन भरने जाने को तैयार थे तभी पार्टी नेतृत्व ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और कहा कि आप मरवाही में ही रहकर जोगी से मुकाबला कीजिये और उन्हें वहीं बांधे रखिये। साय ने पार्टी नेतृत्व की बात मानकर ऐसा ही किया मगर उन्हें मरवाही से हार का सामना करना पड़ा। चुनाव में भाजपा का बहुमत आने के बाद जब मुख्यमंत्री बनने की बारी आई तब इन्होंने अपना दावा भी प्रस्तुत किया था मगर इन्हें यह कहकर चुप करा दिया गया कि आप चुनाव हार गये हैं इसलिये आपके नाम पर बाकी विधायक तैयार नहीं होंगे। दिलीप सिंह जूदेव भी उस समय मुख्यमंत्री पद के स्वभाविक एवं सबसे मजबूत दावेदार थे मगर वे भी ऐन चुनाव के समय रिश्वत प्रकरण में फंसे या फंसाए गये थे, जिस कारण डॉ. रमन सिंह की लाटरी लग गई जो उस समय भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे।
यह भी हुआ साय के साथ
रमन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद नंदकुमार साय को शायद सोची समझी रणनीति के तहत प्रदेश की राजनीति से बाहर करने का प्रयास किया गया, जिसके तहत इन्हें अपनी परम्परागत सीट रायगढ़ की जगह सरगुजा से लोकसभा चुनाव लड़ाया गया । इसमें भी शायद कोई गुणा भाग रहा हो कि नंदकुमार साय चुनाव हार जायें और इनका खेल खत्म हो जाये मगर नंदकुमार साय भारी बहुमत से चुनाव जीत गये। लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद इन्हें पार्टी ने राज्यसभा में भेजा था और बाद में अनुसूचित जनजाति आयोग का अध्यक्ष केंद्र सरकार द्वारा बनाया गया था। कुल मिलाकर 2003 का मरवाही चुनाव हारने के बाद नंदकुमार साय को एक तरह से छत्तीसगढ़ की राजनीति से किसी न किसी बहाने से दूर ही रखने का प्रयास किया गया। हद तो तब हो गई जब प्रदेश की पार्टी कोर ग्रुप तक से इन्हें बाहर कर दिया गया जबकि उसमें ऐसे भी लोग काबिज हैं जो नंदकुमार साय से राजनीति सीखे हैं। कुछ माह पूर्व जब प्रदेश प्रभारी ओम माथुर रायपुर आकर पार्टी नेताओं से पार्टी कार्यालय में मुलाकात कर रहे थे उसमें तक नंदकुमार साय को बुलाना जरूरी नहीं समझा गया। इसकी सूचना पाकर जब वे पार्टी कार्यालय पहुंचे थे तब उन्हें करीब दो घंटे बाहर बिठा दिया गया जिस कारण नंदकुमार साय ओम माथुर से बिना मिले ही नाराज होकर वहां से चल दिये थे। उस समय किसी भाजपा नेता ने दबी जुबान से भी यह कहने का साहस नहीं दिखाया था कि नंदकुमार साय के साथ यह ठीक नहीं हुआ। यहां यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि मध्य प्रदेश एवं अब के छत्तीसगढ़ में आदिवासी नेताओं के साथ पार्टी नेतृत्व ने हमेशा सौतेला व्यवहार किया है। सरगुजा से लरंग साय या बस्तर से बलीराम कश्यप हों, इनकी क्षमता का भरपूर फायदा पार्टी ने उठाया मगर जब पद देने की बारी आई तब इन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई। आज भी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय ननकी राम कंवर हों या फिर रामविचार नेताम इनकी धमक तक प्रदेश भाजपा में कम पड़ गई है । पिछले विधान सभा चुनाव में तो राम विचार नेताम को विधानसभा का टिकट तक नहीं दिया गया था जबकि उस समय उनके जीतने की प्रबल संभावनायें थीं।
पुराने कर्णधारों की लकीर ही बड़ी हुई
दिल्ली में पार्टी मुख्यालय से जो भी नेता रायपुर पार्टी की देखरेख के लिये भेजे जाते हैं वे पिछले कर्णधारों द्वारा खींची गई लकीर को बड़ा करने का ही प्रयास करते हैं। आम कार्यकर्ताओं से मिलने तक की इन्हें फुर्सत नहीं रहती है मगर चाटुकारों एवं मालपुआ खिलाने वालों से ये नेता हमेशा घिरे रहते हैं । ये दम्भी एवं अभिमानी नेता विदुर जैसे कार्यकताओं के यहां की साग खाना कभी पसंद नहीं करते हैं । इतना ही नहीं जब जिला में मीटिंग लेने आते हैं तब भी कार्यकर्ताओं की अपेक्षित श्रेणी का बोर्ड मीटिंग हाल के बाहर लगवा देते हैं कि केवल यही लोग मीटिंग में उपस्थित हों। इन दिल्ली के दूतों से मिलने दूर-दराज से जो कार्यकर्ता अपना पैसा लगाकर आते हैं वे इनके इस व्यवहार से क्षुब्ध होकर अंत में गालियां देते हुये वापस चल देते हैं। अब ऐसे हताश निराश कार्यकर्ता कब तक भाजपा के दीये में तेल डालेंगे। कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ भारतीय जनता पार्टी की पूरी व्यवस्था ही सड़ चुकी हैं, जहां निष्ठावान कार्यकर्ता को अपमान, चाटुकार एवं परिक्रमा करने वालों को सम्मान मिल रहा हो वहां पार्टी की व्यवस्था कैसे सुधरेगी ऐसी ही स्थिति पर चाणक्य ने भी कहा है कि जिस संघ, समाज या संस्था में योग्यता से ज्यादा दौलत को और योग्य से ज्यादा चाटुकारों को उंचा स्थान मिलता हो उस संघ समाज और संस्था की बर्बादी निश्चित है।
यूं ही कोई बेवफा नहीं होता
आज भाजपा के कुछ नौसिखिये जो नंदकुमार साय को कोस रहे हैं । वे इस बात से अंजान हैं कि साय ने अपनी तहसीलदार की नौकरी का त्याग करके भाजपा या जनसंघ का दामन उस समय थामा था जब पूरे देश में कांग्रेस की तूती बोलती थी । अगर भाजपा ने नंदकुमार साय को बहुत कुछ दिया तो उन्होंने भी भाजपा के लिये अपने जीवन और जवानी का त्याग किया तथा पार्टी को मजबूत करने के लिये गांव-गांव डगर-डगर फिरे तब आज पार्टी की यह स्थिति है। किसी पर दोष लगाना तो आसान है मगर उसे कितनी पीड़ा हुई होगी जिस कारण उसको यह निर्णय लेना पड़ा इसे भी समझना पड़ेगा। कुछ तो मजबूरियां रही होंगी यूं ही कोई बेवफा नहीं होता…